• 19/02/2024

Narayan Kavach: नारायण कवच से सारे संकट होंगे खत्म, जानें पूजा विधि

Narayan Kavach: नारायण कवच से सारे संकट होंगे खत्म, जानें पूजा विधि

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अगर आके जीवन में किसी भी तरह का कोई संकट है और आपको इसका कोई समाधान न मिल रहा हो। जिसकी वजह से आप हताश और निराश हो चुके हों, तो आपको भगवान विष्णु की शरण में जाना चाहिए। आपको नारायण कवच का पाठ करना चाहिए। नारायण कवच के पाठ से सभी संकट दूर हो सकते हैं। नारायण कवच की मदद से इंद्र ने असुरों पर विजय प्राप्त की थी और स्वर्ग पर आए संकट को खत्म कर दिया था।

शुक्ल पक्ष की किसी भी एकादशी से नारायण कवच का पाठ शुरु कर सकते हैं। ब्रह्म मुहूर्त ने उठकर नित्य कर्म और स्नान के बाद साफ-सुथरे कपड़े पहन लें। उसके बाद उत्तर दिशा की तरफ एक चौकी पर साफ कपड़ा बिछा कर भगवान नारायण की फोटो या मूर्ति उस पर रख लें। धूप-दीप जलाकर पूजा करें। भगवान विष्णु को चना-गुड़, बेसन का लड्डू, केला का भोग लगाए। इसके बाद नारायण कवच का पाठ शुरु करें। नित्य इसका पाठ करने से भगवान विष्णु की आप पर कृपा बरसेगी और समस्त संकट दूर होंगे। इसके साथ ही आपके जीवन में सुख समृद्धि आएगी।

न्यास

सर्वप्रथम श्रीगणेशजी तथा भगवान् नारायणको नमस्कार करके नीचे लिखे प्रकार से न्यास करे –

अङ्गन्यासः

ॐ ॐ नमः – पादयो: (दाहिने हाथकी तर्जनी अंगुष्ठ– इन दोनोंको मिलाकर दोनों पैरोंका स्पर्श करे) ।

ॐ नं नमः – जानुनोः (दाहिने हाथकी तर्जनी अंगुष्ठ–इन दोनोंको मिलाकर दोनों घुटनोंका स्पर्श करे) ।

ॐ मों नमः – ऊर्वोः (दाहिने हाथकी तर्जनी अंगुष्ठ— इन दोनोंको मिलाकर दोनों पैरोंकी जाँघका स्पर्श करे) ।

ॐ नां नमः – उदरे (दाहिने हाथकी तर्जनी–अंगुष्ठ–इन दोनोंको मिलाकर पेटका स्पर्श करे) ।

ॐ रां नमः –हृदि (मध्यमा–अनामिका–तर्जनीसे हृदयका स्पर्श करे) ।

ॐ यं नमः – उरसि (मध्यमा–अनामिका– तर्जनीसे छातीका स्पर्श करे) ।

ॐ णां नमः – मुखे (तर्जनी–अँगूठेके संयोगसे मुखका स्पर्श करे) ।

ॐ यं नमः – शिरसि (तर्जनी–मध्यमाके संयोगसे सिरका स्पर्श करे) ।

करन्यासः

ॐ ॐ नमः – दक्षिणतर्जन्याम् (दाहिने अँगूठेसे दाहिनी तर्जनीके सिरेका स्पर्श करे) ।

ॐ नं नमः – दक्षिणमध्यमायाम् (दाहिने अँगूठेसे दाहिने हाथकी मध्यमा अँगुलीका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ मों नमः – दक्षिणानामिकायाम् (दाहिने अँगूठेसे दाहिने हाथकी अनामिकाका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ भं नमः – दक्षिणकनिष्ठिकायाम् (दाहिने अँगूठेसे दाहिने हाथकी कनिष्ठिकाका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ गं नमः – वामकनिष्ठिकायाम् (बायें अँगूठेसे बायें हाथकी कनिष्ठिकाका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ वं नमः – वामानामिकायाम् (बायें अँगूठेसे बायें हाथकी अनामिकाका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ तें नमः – वाममध्यमायाम् (बायें अँगूठेसे बायें हाथकी मध्यमाका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ वां नमः – वामतर्जन्याम् (बायें अँगूठेसे बायें हाथकी तर्जनीका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ सुं नमः – दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि (दाहिने हाथकी चारों अँगुलियोंसे दाहिने हाथके अँगूठेका ऊपरवाला पोर स्पर्श करे) ।

ॐ दें नमः – दक्षिणाङ्गुष्ठाधः पर्वणि (दाहिने हाथकी चारों अँगुलियोंसे दाहिने हाथके अँगूठेका नीचेवाला पोर छूए ) ।

ॐ वां नमः–वामाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि (बायें हाथकी चारों अँगुलियोंसे बायें अँगूठेके ऊपरवाला पोर छूए ) ।

ॐ यं नमः – वामाङ्गुष्ठाधः पर्वणि (बायें हाथकी चारों अँगुलियोंसे बायें हाथके अँगूठेका नीचेवाला पोर छूए ) ।

विष्णुषडक्षरन्यासः

ॐ ॐ नमः – हृदये (तर्जनी–मध्यमा एवं अनामिकासे हृदयका स्पर्श करे) ।

ॐ विं नमः – मूर्धनि (तर्जनी–मध्यमाके संयोगसे सिरका स्पर्श करे) ।

ॐ षं नमः – भ्रुवोर्मध्ये (तर्जनी–मध्यमासे दोनों भौंहोंका स्पर्श करे) ।

ॐ णं नमः – शिखायाम् (अँगूठेसे शिखाका स्पर्श करे) ।

ॐ वें नमः – नेत्रयोः (तर्जनी–मध्यमासे दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे) ।

ॐ नं नमः – सर्वसंधिषु (तर्जनी–मध्यमा और अनामिकासे शरीरके सभी जोड़ों– जैसे कंधा, केहुनी, घुटना आदिका स्पर्श करे) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – प्राच्याम् (पूर्वकी ओर चुटकी बजाये) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – आग्नेय्याम् (अग्निकोणमें चुटकी बजाये) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – दक्षिणस्याम् (दक्षिणकी ओर चुटकी बजाये) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – नैर्ऋत्ये (नैर्ऋत्यकोणमें चुटकी बजाये ) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – प्रतीच्याम् (पश्चिमकी ओर चुटकी बजाये) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – वायव्ये (वायुकोणमें चुटकी बजाये ) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – उदीच्याम् (उत्तरकी ओर चुटकी बजाये ) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – ऐशान्याम् (ईशानकोणमें चुटकी बजाये ) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – ऊर्ध्वायाम् (ऊपरकी ओर चुटकी बजाये ) ।

ॐ मः अस्त्राय फट् – अधरायाम् (नीचेकी ओर चुटकी बजाये ) ।

अथ श्री नारायण कवच प्रारंभ

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे ।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-पाशान् दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥1॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति – र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् ।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥2॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः।

विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥3॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः ।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोऽव्याद् भरताग्रजोऽस्मान् ॥4॥

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादा- न्नारायणः पातु नरश्च हासात् ।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥5॥

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-द्वयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिम निरयादशेषात् ॥6॥

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा ।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ॥7॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात् ।
कल्कि: कले: कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरुकृतावतारः ॥8॥

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः ।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥9॥

देवोऽपराह्ने मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम् ।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥10॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईश: प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः ।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥11॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम् ।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥12॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ठ्यजितप्रियासि ।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥13॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् ।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ॥14॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य- मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।
चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥15॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च ।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योऽहोभ्य एव वा ॥16॥

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् ।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ॥17॥

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः ।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥18॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः ।
बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ॥19॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् ।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ॥20॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् ।
भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥21॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः ।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥22॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-दन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः ।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥23॥

इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम्