• 06/01/2023

आरक्षण शून्य या 16-20-14? हाई कोर्ट के 19 सितंबर गुरु घासीदास अकादमी फ़ैसले का प्रभाव क्या?

आरक्षण शून्य या 16-20-14? हाई कोर्ट के 19 सितंबर गुरु घासीदास अकादमी फ़ैसले का प्रभाव क्या?

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आलेख-

छत्तीसगढ में इस विवादित प्रश्न का जवाब अलग-अलग लोग मौके और सुविधा के हिसाब से देते रहे हैं| राज्य निर्माण के बाद बदली जनसंख्या हिस्सेदारी के मुताबिक आरक्षण अधिनियम 1994 का संशोधन करने में छग शासन ने 2011 तक का समय ले लिया जबकि मध्य प्रदेश में जरुरी संशोधन 2002 में ही हो गया था| लंबे समय तक अपनी जनसंख्या हिस्सेदारी से 4 प्रतिशत अधिक आरक्षण लेते हुए अनुसूचित जाति प्रवर्ग में 16% आरक्षण का अधिकार होने की धारणा पनपी| दूसरी ओर भूपेश बघेल द्वारा मध्य प्रदेश की नकल में, लेकिन बिना जरुरी अध्ययन के, ओबीसी को 27% आरक्षण देने की कोशिश और फ़िर अध्यादेश/अधिनियम को हाई कोर्ट से अपास्त कराने वाले व्यक्तियों को पद नवाजने ने एससी-ओबीसी दोनों प्रवर्गों में अव्यावहारिक मांगों का उन्माद फ़ैलाया| हाई कोर्ट के 19 सितंबर गुरु घासीदास अकादमी फ़ैसले के बाद आदिवासियों की ओर से शून्य आरक्षण का तर्क इसलिए दिया गया था क्योंकि इसके सिवा किसी हालात में उनके हित में कोई प्रभावी प्रयास किए जाने की उम्मीद भी खत्म हो जाती| वैसे भी 16-20-14 के एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण रोस्टर से सीधा नुकसान सिर्फ़ आदिवासियों का ही है| ऐसे में फ़िर से आरक्षण के बड़े जानकार बी.के.मनीष ने कुछ सफ़ाई पेश की है|

बीके मनीष

हाई कोर्ट के 19 सितंबर गुरु घासीदास अकादमी फ़ैसले में यह सफ़ाई नहीं दी गई कि इसका व्यावहारिक असर क्या होगा| लेकिन एससी-एसटी के आरक्षण को 12-32 किए जाने का कोई तार्किक आधार न होने की टिप्पणी से यह धारणा पनपी कि शायद 16-20-14 का एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण रोस्टर बहाल किया गया है|

मेडीकल भर्ती से जुड़े रिट और अवमानना के प्रकरणों की चार पेशियों में भी नवंबर में चीफ़ जस्टिस की खंडपीठ ने शून्य आरक्षण पर कोई स्पष्टता नहीं दी है| दिसंबर में हाई कोर्ट की दो अन्य पीठों ने “मौजूदा विधि” के अनुसार विविध कोर्सेस में भर्ती का आदेश दिया|

कुछ अधिकारियों और कानूनी जानकारों ने 2011 के आरक्षण संशोधन अधिनियम के अपास्त होने से यह नतीजा निकाला कि मूल आरक्षण अधिनियम 1994 के प्रावधान बहाल हो गए हैं| यह व्याख्या संभवत: 2015 के संविधान पीठ के NJAC-कॉलेजियम फ़ैसले में न्यायमूर्ति खेहर की अगुआ राय पर आधारित है|

संशोधन विधि के न्यायालय द्वारा अपास्त किए जाने पर पूर्व प्रावधान के स्वत: बहाल होने के सिद्धांत पर ही आखिर कॉलेजियम सिस्टम बच पाया है| इस बिंदु पर सालिसिटर जनरल के तर्कों को खारिज करते हुए पांच में से चार न्यायमूर्तियों ने उस फ़ैसले में कॉलेजियम सिस्टम को बहाल किया था| छत्तीसगढ में मान लिया गया कि इस सिद्धांत पर नई बहस की इजाजत ही सुप्रीम कोर्ट से अब नहीं मिलेगी|

ज्यादातर कानूनी जानकारों ने NJAC-कॉलेजियम फ़ैसले को गहराई से नहीं पढा और न्यायमूर्ति खेहर की अगुआ राय को बेवजह महत्व दिया| दरअसल पूर्व प्रावधान के स्वत: बहाल होने के नतीजे तक चारों न्यायमूर्ति खेहर, लोकुर, जोसेफ़ और गोयल अलग-अलग रास्ते से पहुंचे थे (पैराग्राफ़ 413-15, 960, 989, 1110)| बहुत मुश्किल से यह कहा जा सकता है कि पहले तीन न्यायमूर्तियों की राय में एक मात्र साझा तर्क यही था कि कम से कम संविधान संशोधनों के मामले में पूर्व प्रावधान स्वत: बहाल होता है| 99वें संशोधन को बेसिक स्ट्रक्चर को क्षति पहुंचाने के आरोप में अपास्त किया गया| चूंकि यह संविधान संशोधन करने के संसद के क्षेत्राधिकार से ही सीधे संबद्ध है (अवैधता के किसी अन्य आधार की चर्चा ही 1973 के बाद से हुई नहीं) इसलिए पूर्व प्रावधान के स्वत: बहाल होने के पिछले फ़ैसलों की संगति जारी रही, न कि एक नया अपवाद जुड़ा| किसी भी न्यायमूर्ति ने इस पर ध्यान नहीं दिया था|

NJAC-कॉलेजियम फ़ैसले में न्यायमूर्ति खेहर की अगुआ राय (पैराग्राफ़ 414) अलग से देखने पर सिर्फ़ अल्प-मत की राय और निष्प्रभावी है क्योंकि यह कम से कम चार संविधान पीठ फ़ैसलों अमीरुन्निसा बेगम (1955), फ़र्म एटीबी महताब मजीद (1963), मूलचंद ओधवजी (1969) और कोल्हापुर केनशुगर (2000) से उलट है| संविधान पीठ ने 2004 के दाऊदी बोहरा कम्यूनिटी फ़ैसले में साफ़ किया है कि पांच जजों की कोई पीठ समान वजन की पिछली पीठ के किसी फ़ैसले को उलट नहीं सकती, बस दी हुई परिस्थितियों में अप्रासंगिक ठहरा सकती है| खुद न्यायमूर्ति लोकुर ने NJAC-कॉलेजियम फ़ैसले की अपनी राय में कहा है पूर्व प्रावधान के स्वत: बहाल होने के सिद्धांत पर बहस खुली है जो कि किसी उपयुक्त मौके पर की जा सकेगी क्योंकि इस प्रकरण में पर्याप्त बहस नहीं की जा सकी थी|

पूर्व प्रावधान के स्वत: बहाल होने के सिद्धांत पर NJAC-कॉलेजियम फ़ैसले के अलावा बहुत कम ही संदेह है| फ़िर भी समस्या यह है कि भारतीय गणतंत्र में इस सिद्धांत का विकास टुकड़ों में हुआ है| तात्कालिक परिस्थितियों से उपर उठ कर सिर्फ़ सैद्धांतिक तौर पर इस सवाल का व्यापक जवाब देने की कोशिश किसी संविधान पीठ ने नहीं की है| 1850 से पहले तक ब्रिटिश कॉमन लॉ का सिद्धांत था कि संशोधन विधि के प्राधिकारी/विधायिका/न्यायालय द्वारा निरसित/अपास्त किए जाने पर पूर्व प्रावधान स्वत: बहाल होता है| इसकी वजह यह थी कि तब तक विधायिका कई अस्थायी अधिनियम पारित करती थी और किसी अधिनियम के अगले-पिछले संबंध स्पष्ट करने की परंपरा स्थापित नहीं हुई थी| ब्रिटिश संसद के इंटरप्रेटेशन ऍक्ट 1889 से यह स्थिति बिल्कुल उलट गई| संविधान पीठ ने अमीरुन्निसा बेगम (1955) फ़ैसले में कह दिया कि वह उस विदेशी एक्ट का अनुपालन करने के बजाए कॉमन लॉ का अनुपालन करने को स्वतंत्र है, यद्यपि कि ऐसा किया नहीं| भारतीय विधायिका के जनरल क्लॉजेस एक्ट 1897 का जिक्र उस प्रकरण में नहीं हुआ, जबकि आगे चल कर कई संविधान पीठों ने अनुच्छेद 367 की रोशनी में इसका अनुपालन किया है|

अब समय आ गया है कि सत्तर बरस के फ़ैसलों की रोशनी में इस विधिक सिद्धांत को एकसार बनाते हुए विस्तारित कर दिया जाए| इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए कि संशोधित किए जाने वाली विधि नियम, विनियम, अधिनियम, अध्यादेश या संविधान संशोधन स्वरूप की है| इससे भी फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए कि संशोधन को प्राधिकारी/विधायिका/न्यायालय द्वारा निरसित/अपास्त किया जाता है| पूर्व प्रावधान सिर्फ़ तभी स्वत: बहाल हो सकता है यदि ऐसा निष्कर्ष संशोधन करने वाले प्राधिकारी/विधायिका के उद्देश्य की विवेचना से निकले| इस संदर्भ में संशोधन करने वाले प्राधिकारी/विधायिका के क्षेत्राधिकार पर जोर देने के बजाए हर प्रकरण के व्यावहारिक पहलुओं, तत्कालीन जन-नीति और संविधानवाद पर गौर किया जाना चाहिए| किसी संशोधन विधि को निरसित/अपास्त करते हुए प्राधिकारी/विधायिका/न्यायालय द्वारा उसके प्रभाव पर लिखित स्पष्टीकरण दिया जाना भी अनावश्यक विवाद टालने में मददगार होगा|

वर्तमान विवाद में कोई भारी उलझन नहीं है| सुप्रीम कोर्ट के मराठा आरक्षण फ़ैसले के बाद छग. में अनुसूचित जाति को 16% आरक्षण मिलने का सवाल ही नहीं उठता| जनसंख्या के ताजा आंकड़े जो छग शासन ने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामे के साथ 29 नवंबर को दाखिल किए हैं उनकी रोशनी में यह दावा अपने आप खारिज हो जाता है| मंत्रालय सेवा संवर्ग में अंतिम ग्रेडेशन लिस्ट के अनुसार अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व अराजपत्रित पदों में 17.56% और राजपत्रित पदों में 13.63% है तो अपर्याप्तता भी नहीं दिखती|

लेखक- बीके मनीष, संविधान विशेषज्ञ और विधिक सलाहकार हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण)- इस आलेख में व्यक्त किए विचार लेखक के अपने निजी विचार हैं।